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अथर्ववेद में कहा गया है - पुरुषार्थ मेरे दाएं हाथ में है और सफलता मेरे बाएं हाथ में है| इसका सीधा अर्थ है कि भाग्य के भरोसे वही व्यक्ति बैठता है जो कर्म को जीवन का उद्देश्य नहीं बनाता कर्मशील व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से भाग्य को भी बदल देता है |
राजा विक्रमादित्य के पास सामुद्रिक लक्षण जानने वाला एक ज्योतिषी पहुंचा, विक्रमादित्य का हाथ देखकर वह चिंतामग्न हो गया, उसके ज्योतिष शास्त्र के अनुसार राजा को दीन दुर्बल और कंगाल होना चाहिए था लेकिन वह तो सम्राट थे स्वस्थ थे लक्षण में ऐसी विपरीत स्थिति संभवतः उसने पहली बार देखी थी |ज्योतिषी की दशा देखकर विक्रमादित्य उसकी मनोदशा समझ गए और बोले बाहरी लक्षणों से यदि आपको संतुष्टि नहीं मिली हो तो मैं छाती चीर कर दिखाता हूं भीतर के भी लक्षण देख लीजिए इस पर ज्योतिषी बोला - नहीं महाराज! मैं समझ गया की आप निर्भयी हैं , पुरुषार्थी हैं इसीलिए आपने परिस्थितियों को अनुकूल बना लिया है। और भाग्य पर विजय प्राप्त कर ली है। यह बात मेरी समझ में आ गयी है की युग मनुष्य को नहीं बनाता बल्कि मनुष्य युग का निर्माण करने की क्षमता रखता है। एक पुरुषार्थी मनुष्य में ही हाथ की लकीरो को बदलने की समर्थता होती है।
उपर्युक्त उदहारण से ये बातें प्रकाश में आती हैं -
1 . हम स्वयं परिस्थितियों को अनुकूल या प्रतिकूल बनाते हैं। अपने विचारो से, अपने परिश्रम से जो व्यक्ति सोचता है की वह निर्धन है , तो उसके विचार भी निर्धन होते हैं। विचारो की निर्धनता के कारण वह आर्थिक रूप से विपन्न होता है , यह विपन्नता उसे इस कदर लाचार कर देती है की उसे धरती पर बिखरी सम्पन्नता नज़र ही नहीं आती , नज़र आतें है तो सिर्फ सम्पन्न लोग , उनके ठाठ-बाथ और शानो-शौकत जो उसे कुंठित करते हैं, जबकि उनसे प्रेरणा लेकर वह भी सम्पन्न होने की कोशिश कर सकता है। अतः जरूरत है अपने सोच में बदलाव की।
गहरी नींद में सोते हुए नेपोलियन को उसके सेनापति ने मध्यरात्रि में जगाया और दक्षिणी मोर्चे पर शत्रु द्वारा अचानक हमला किये जाने की खबर दी। नेपोलियन आँखे मलते हुए उठा और दिवार पर टंगे ३४ नंबर के नक़्शे को उतारते हुए बोलै - "इसमें बताये गए तरीको के अनुसार काम करो "
सेनापति चकित रह गया की जिस हमले का उसे अनुमान तक न था , उस हमले की संभावना को नेपोलियन ने समय से पूर्व ही कैसे सोच लिया और कैसे उसका प्रतिकार खोज लिया।
सेनापति की मनोदशा को समझते हुए नेपोलियन ने बताया की विचारशील लोग अच्छी -से -अच्छी आशा करते हैं किन्तु बुरी से बुरी परिस्थितियों के लिए भी तैयार रहते हैं। मेरी मनःस्थिति सदा ही ऐसी रही है , इसलिए मुझे विपत्ति आने से पहले ही उसका अनुमान लगाने और उसका उपाय सोचने में संकोच नहीं होता।
2. मन की स्थिति अजेय है , उसकी दृढ इच्छाशक्ति मनुष्य को विवश कर देती है की वह शरीर के रोग की परवाह किये बिना अपने काम को अपने सामर्थ्य से पूरा करे। यही मनुष्य की सारी शारीरिक अयोग्यता पर विजय प्राप्त करने का सामर्थ्य प्रदान करती है।
* जिस समय अमेरिका में गृहयुद्ध हो रहा था , उन दिनों राष्ट्रिय सेना के सेनापति ग्रांट , पैरों की तकलीफ से परेशान थे इसीलिए युद्ध के मोर्चे पे न जाकर वे एक ही स्थान पर रूक कर युद्ध सञ्चालन करने लगे। एक दिन ग्रांट अपने शिविर में बैठे थे की अचानक उन्होंने देखा - विरोधी सेना ने संधि सूचना का सफ़ेद झंडा फहरा दिया, इससे वे इतने उत्साहित हुए की कुर्सी से उठकर दौर परे और पैरों के दर्द का एहसास तक न रहा।
* स्वामी अवधेशानंद ने लिखा है - "मानव देह है और पूर्ण भी , एक बार भी स्वयं में झाँकने का अर्थ है अतुल-विपुल शक्ति, अपर ऊर्जा और परम प्रकाश का स्पर्श , ये सब उद्घाटन के लिए छटपटा रहे हैं।"
दरअसल अवचेतन मन में यह शक्ति सुप्तावस्था में सदैव विद्यमान रहती है पर हम उससे अनभिज्ञ होते हैं। प्रायः हम देखते हैं की कई बार शर्मीली लड़कियां भी अवसर पड़ने पर अपूर्व शौर्य का प्रदर्शन करती हैं। इसलिए जरूरी है की हम अपनी शक्ति को पहचाने और अपने आप को शक्तिशाली समझकर कैसी भी परिश्थिति को अनुकूल बनाएं।
3. मनुष्य निर्धनता और सम्पन्नता का संबंध भाग्य से जोड़ता है , वह सोचता है की जो भाग्यशाली है लक्ष्मी उस पर प्रसन्ना रहती हैं और बदकिस्मती का मारा कोशिश करने के बाद भी निर्धन ही बना रहता है |
भाग्यवादी मनुष्य उस गाय की तरह खूंटे से बंधी होती है और जितना चारा उस गाय के सामने आता है उसी को वह भक्षण कर लेती है और बाद में भूखी रहने पर चुपचाप आंसू बहती है। इसी प्रकार वह व्यक्ति अपने भाग्यरूपी खूंटे से बांधकर पुरुषार्थ रुपी प्राप्त स्वतंत्रता से वंचित रह जाता है और निष्क्रियता को प्राप्त होता है और विचार करता है - हमें मानव जीवन की सुख सुविधा सहज रूप से हासिल हो जाएगी , लेकिन जब ऐसा नहीं होता तो उसे ईश्वर और भाग्य को कोसने में देरी भी नहीं लगती।
यथार्थ से पुरुषार्थ करने में ही जीवन की सफलता सुनिश्चित है जबकि व्यक्ति भाग्य के सहारे निष्क्रियता को जन्मा देकर अपने सुनहरे अवसर को नष्ट कर देता है। महाभारत के युद्ध में भगवन श्री कृष्णा यदि चाहते तो पांडवो को पालक झपकते ही विजय दिला देते, किन्तु वह नहीं चाहते थे की बिना कर्मा किये ही उन्हें यश मिले, उन्होंने अर्जुन को कर्मयोग का पथ पढ़ाकर उसे युद्ध में संलग्न कराया और फिर विजयश्री एवं कीर्ति दिलवाकर उसे लोक-परलोक में यशस्वी बनाया।
अतः हमें सदा क्रियाशील रहना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले आवश्यक है हम अपनी मंज़िल तय करें और फिर उस दिशा में प्रयत्न शुरू करें। असफलता भी आएगी लेकिन उससे निराश नहीं होकर फिर दुने उत्साह के साथ प्रयास करना चाहि। ऐसे उद्यमी व्यक्ति को अपने मंजिल तक पहुंचने में कोई नहीं रोक सकता। मंजिल चाहे भगवत्प्राप्ति हो , धर्म के साथ धन उपार्जन हो , विद्वान बनना हो या फिर समाज सेवा , देश सेवा का आदर्श उपस्थित करना हो जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्हें उनका पुरुषार्थ ही उन्हें सफलता के शिखर पर पहुँचाया है। भगवत्कृपा के आश्रित होकर हम प्रयत्नशील रहे। भाग्य बदलते देर नहीं लगेगी।
संकलित
श्री अमित कुमार
बेगूसराय
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